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Vedoktam Devi Suktam (Durga Saptashati) lyrics in Hindi

devi bhagwati gurga
यह सूक्त ऋग्वेद के मंडल १० के सूक्त १२५ में लिखा गया है, इसे कहीं-कहीं वाकम्भरणी सूक्त भी कहा गया है,

 ऋग्वेदोक्तं देवी सूक्तम् ( हिन्दी अर्थ सहित ) -

 विनियोगः -
ॐ अहमित्यष्टर्चस्य सूक्तस्य वागाम्भृणी ऋषिः, सच्चित्सुखात्मकः सर्वगतः परमात्मा देवता, द्वितीयाया ऋचो जगती, शिष्टानां त्रिष्टुप् छन्दः, देविमाहात्म्यपाठे विनियोगः 

ध्यानम्  -
ॐ सिंहस्था शशिशेखरा मरकतप्रख्यैश्चतुर्भिर्भुजैः
शङ्खं चक्रधनुःशराम्श्च् दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता,
आमुक्ताङ्ग्दहारकङ्क्णरणत्कान्चीरणन्नूपूरा
दुर्गा दुर्गतिहारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्कुण्डला.

देवीसूक्तम् -

ॐ अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणोभा विभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ।।1।।

अहं  सोममाहनसं विभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ।।2।।

अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्य्यावेशयन्तीम् ।।3।।

मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम् ।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ।।4।।

अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः ।
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ।।5।।

अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं क्रिणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ।।6।।

अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ।।7।।

अहमेव वात इव प्रवाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना संबभूव ।।8।।

।। इति श्री ऋग्वेदोक्तं देवी सूक्तं संपूर्णम् ।। 

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 Hindi Meaning of Devi Suktam-

ध्यान- 
जो सिंह की पीठ पर विराजमान हैं, जिनके मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट है, जो मरकतमणि के समान कान्तिवाली अपनी चार भुजाओं में शंख, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, तीन नेत्रों से सुशोभित होती हैं, जिनके भिन्न भिन्न अंग बांधे हुए बाजूबंद, हार, कंकण, खनखनाती हुई करधनी और रुनझुन करते हुए नूपुरों से विभूषित हैं तथा जिनके कानों में रत्नजड़ित कुण्डल झिलमिलाते रहते हैं, वे भगवती दुर्गा हमारी दुर्गति दूरकरने वाली हों।

मन्त्र ( अर्थ )-

[ महर्षि अम्भृण की कन्या का नाम वाक् था, वह ब्रह्म ज्ञानिनी थी, उसने देवी के साथ अभिन्नता धारण कर ली थी, ये उसी के उद्गार ( वचन ) हैं- ] मैं सच्चिदानंदमयी सर्वात्मा देवी रूद्र, वसु, आदित्य, तथा विश्वेदेव गणों के रूप में विचरती हूँ। मैं ही मित्र और वरुण दोनों को, इंद्र और अग्नि तथा दोनों अश्विनीकुमारों को धारण करती हूँ।।१।।

मैं ही शत्रुओं के नाशक आकाशचारी देवता सोम को, त्वष्टा प्रजापति को तथा पूषा और भाग को भी धारण करती हूँ। जो हविष्य से संपन्न हो देवताओं को हविष्य की प्राप्ति कराता है, उस यजमान के लिए मैं ही उत्तम यज्ञ का फल और धन प्रदान करती हूँ।।२।।

मैं सम्पूर्ण जगत की अधीश्वरी अपने उपासकों को धन की प्राप्ति कराने वाली, साक्षात्कार करने योग्य परब्रह्म को अपने से अभिन्न रूप में जानने वाली तथा पूजनीय देवताओं में प्रधान हूँ। मैं प्रपंच रूप से अनेक भावों में स्थित हूँ। सम्पूर्ण भूतों में मेरा प्रवेश है। अनेक स्थानों में रहने वाले देवता जहां कहीं जो कुछ भी करते हैं, वह सब मेरे लिए करते हैं।।३।।

जो अन्न खाता है, वह मेरी शक्ति से ही खाता है, इसी प्रकार जो देखता है, जो सांस लेता है और जो कही हुई बात सुनता है वह मेरी ही सहायता से उन सब कर्मों को करने में समर्थ होता है। जो मुझे इस रूप में नहीं जानते, वे न जानने के कारण ही दीन दशा को प्राप्त होते जाते हैं। हे बहुश्रुत, मैं तुम्हे श्रद्धा से प्राप्त होने वाले ब्रह्मतत्व का उपदेश करती हूँ, सुनो- ।।४।।

मैं स्वयं ही देवताओं और मनुष्यों द्वारा सेवित इस दुर्लभ तत्व का वर्णन करती हूँ, मैं जिस जिस पुरुष की रक्षा करना चाहती हूँ, उस-उस को सब की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बना देती हूँ, उसी को सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, परोक्षज्ञान संपन्न ऋषि तथा उत्तम मेधाशक्ति से युक्त बनाती हूँ।।५।।

मैं ही ब्रह्मद्वेषी हिंसक असुरों का वध करने के लिए रूद्र के धनुष को चढाती हूँ। मैं ही शरणागत जनों की रक्षा के लिए शत्रुओं से युद्ध करती हूँ तथा अन्तर्यामी रूप से पृथ्वी और आकाश के भीतर व्याप्त रहती हूँ।।६।।

मैं ही इस जगत के पिता रूप आकाश को सर्वाधिष्ठान स्वरुप परमात्मा के रुप में उत्पन्न करती हूँ। समुद्र में तथा जल में मेरे कारण चैतन्य ब्रह्म की स्थिति है, अतएव ( इसी कारण से ) मैं समस्त भुवन में व्याप्त रहती हूँ तथा उस स्वर्गलोक का भी अपने शरीर से स्पर्श करती हूँ।।७।।

मैं कारण रूप से जब समस्त विश्व की रचना आरम्भ करती हूँ तब दूसरों की प्रेरणा के बिना स्वयं ही वायु के भाँति चलती हूँ, स्वेच्छा से ही कर्म में प्रवृत्त होती हूँ, मैं पृथ्वी और आकाश दोनों से परे हूँ, अपनी महिमा से ही मैं ऐसी हुई हूँ।।८।।

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